पुस्तक की समीक्षा
पुस्तक का नाम – ‘‘परियों के देश खैट पर्वत में’’
लेखक- डॉ. अरुण कुकसाल
समीक्षक- इं. बिहारी लाल दनोसी
ग्यारह जून, 2024 की सुबह पौड़ी में जब मैं अपने कार्यालय में बैठा था तब अप्रत्याशित रूप से विगरैले साहित्यकार अरुण कुकसाल जी ने मुस्कराते हुए प्रवेश किया। वे श्रीनगर से आये थे। बिना किसी भूमिका के उन्होंने ’’परियों के देश खैट पर्वत में’’ शीर्षक वाली अपनी नई पुस्तक मेरे हाथ में थमाई। शीर्षक ने मुझे चौंकाया। क्योंकि मैंने सुना था कि- ‘‘जु खैटे आछरियों क बस मा गाई वू तखि जुगता ह्वाई।‘‘ मैंने पूछा-’’बंधु आप खैट से सकुशल कैसे लौटे?’’ उन्होने चटपट कहा-’’आप इसे पूरा पढ़ना…उत्तर मिल जायेगा।’’ वे तत्काल चलते बने क्योंकि उन्हे बस स्टैण्ड से चामी के लिये वाहन पकड़ना था। उनके पीछे जब मैं बाहर निकला तो घर की सीढ़ियों से सड़क तक उतरने और फिर स्टैण्ड की ओर पग बढ़ाने की उनकी काखड़ों वाली फुर्ती को निहारता रह गया। लगा कि कुकसाल जी अभी भी एक जिंदादिल इन्सान है।अब बात हो इस यात्रा पुस्तक की। कुकसाल जी के छः विभिन्न शीर्षकों वाले एक से बढ़कर एक दुर्गम यात्रा विवरण हैं जो सुंदर सलीके से पुस्तक में दर्ज किये गये हैं, उन्हेे मैं सूक्ष्मता के आवरण में नहीं बांध पाऊंगा? लेखक ने उक्त पुस्तक में गढ़वाल मंडल के कुछ नामचीन स्थानों यथा नीती घाटी, जहरीखाल, सेम-मुखेम, खैट पर्वत, त्रियुगीनारायण तथा चमोली के खैनोली गांव के यात्रा वृतांतों में स्थानीय महत्व और महात्म्य सम्बंधी प्रकरणों को पाठकों केे समक्ष जिस प्रवीणता के साथ उकेरा है, वह बेमिसाल है।
लेखक ने उक्त पुस्तक आशा भट्ट दीदी की स्मृतियों को समर्पित किया है जिसे देहरादून के समय साक्ष्य प्रकाशन ने अत्यंत सुंदरता के साथ प्रकाशित किया है। पुस्तक की अग्रिम पंक्तियों में चन्द्रशेखर तिवारी जी ने भी पुस्तक के आधार बिन्दुओं पर सूक्ष्म विश्लेषण दर्ज करके प्रत्येेक स्थान की नैसर्गिक सुंदरता को सूक्ष्म रूप में उकेरने का सुंदर प्रयास किया है। ‘अपनी बात’ में लेखक बहुत ऊंची बात कह गये हैं कि ‘‘घुम्मकड़ी उनका शौक ही नहीं है बल्कि एक कठोर साधना भी है। घुमक्कड़ी में जहां भी गये हैं, वहां के प्राकृतिक और मानवीय सुख-दुःखों को बटोरकर अपने साथ लाये हैं, इसीलिये ये सुख और दुःख उनकेेे यात्रा वृतांतों के सारथी जैसे बन गये हैं।’’ 1. नीती-माणा की ओरप्रथम सोपान में लेखक ने विजय घिल्डियाल एवं हिमाली कुकसाल की सहचरी में जोशीमठ (समुद्र तल से 1821 मी0) से जो यात्रायें की हैं, उनमें चमोली जनपद की प्रसिद्ध ‘उर्गम घाटी’ की यात्रा दर्ज हैै। 11 दिसम्बर, 2021 को वे लोग टैक्सी के माध्यम से जोशीमठ से बद्रीनाथ राजमार्ग में 14 किमी की दूरी पर स्थित, अलकनन्दा नदी के बांये तट पर मौजूद हेलंग नामक स्थान पर पहुंचते हैं। वहां पर अलकनन्दा नदी पर बने पुल को पार करके वे लोग नदी के दांई ओर से उत्तर दिशा में चलकर उर्गम घाटी में प्रवेश करते हैं। घाटी में 12 गांव हैं जिनमें उर्गम सबमें नामचीन गांव है। उर्गम केे समीप ही पांचवां केदार याने भगवान शिव का कल्पेश्वर मंदिर (समुद्रतल से 2134 मी0) स्थित है। इस मंदिर में भगवान शिव की जटाओं की पूजा होती है। यह मंदिर अलकनन्दा तट से 16 किमी की दूरी पर स्थित है। उर्गम घाटी में 3 छोटी नदियां बहती हैं जिनका संगम मंदिर के समीप होता है। संगम से आगे कल्पगंगा नाम से एक ही नदी आगे बढ़कर अंततः अलकनन्दा में समाविष्ट होती है। लेखक ने उर्गम घाटी के ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक महत्य से सम्बंधित तथा स्थानीय जनता के सुख-दुःखों, आजीविका, आवागमन, चिकित्सा, शिक्षा आदि अनेक पहलुओं पर अन्वेषण करके उक्त पुस्तक के जरियेे सभी जानकारियां पाठकों तक पहुंचाई हैं। यह भी बताया है कि उर्गम की पहाड़ी के दूसरी तरफ भगवान बद्रीनाथ जी का मंदिर स्थित है।
वास्तव में यह लेखक की ऐसी साहसिक यात्रा है जो पाठकों को भयभीत भी करती है और उनके मन में एक बार उर्गम घाटी देखने का रोमांचक जज्बा भी उत्पन करती है।नीती घाटी- जोशीमठ से 62 किमी दूर मलारी गांव तक के सीमांत क्षेत्र को नीती घाटी कहते हैं। लेखक अनुसार नीती घाटी में परसारी, मेरग, बड़ागांव, ढाकगांव, तपोवन, सलधार, रैणीगांव, लातागांव, तोलमा गांव, सुराईथोटा आदि अनेक गांव स्थित हैं। मलारी समुद्र तल से 3030 मीटर की ऊंचाई पर है। 12 दिसम्बर, 2021 को जब वे लोग जोशीमठ से बड़ा गांव होते हुए ढाक गांव की धार में पहुंचते हैं तब उन्हे दूसरी ओर तपोवन का क्षेत्र नजर आता हैं। इसी स्थान पर 7 फरवरी 2021 को, ऋषिगंगा नदीतट पर बन रहे 12 मेगावाट का बिजलीघर ऋषिगंगा में समा चुका था। (तब यह समाचार पढ़कर मैं भी बड़ा दुखित हुआ था।) यह नैसर्गिक सत्य है कि प्राकृतिक आपदाओं के सामने इन्सान हमेशा बेबस बना रह जाता है। लेखक बतातेे हें कि तपोवन से 3 किमी आगे सलधार तक सड़क बेहद खतरनाक स्थिति में है। सलधार से 2 किमी आगे धौलीगंगा और ऋषिगंगा नदियों का संगम है। इसी क्षेत्र में वह विख्यात रैणी गांव भी स्थित है जिसने सतर के दशक में चिपकों आंदोलन की प्रणेता गौरादेवी को विश्व फलक पर पहचान दिलाई थी। उनके आंदोलन के आग सरकार को झुकना पड़ा था। रैणी सेे आगे सीधी सड़क पर लाता गांव है जहां पर नंदादेवी का प्राचीन मंदिर है। इसी के आगे तोलमा गांव व सुराईथोटा बाजार है।
लेखक बताते हैं कि उक्त क्षेत्र मल्ला पैनखण्डा पट्टी के अंतर्गत् हैं जहां 12 गांवों के लगभग 5000 वाशिन्दे शीतकाल में गांव छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। यह प्रवास प्रति वर्ष अक्टूबर के मध्य से अप्रेल मध्य तक बना रहता है। विगत वर्षों सेें इस हिमालयी क्षेत्र में कीड़ा जड़ी ढूंडने और एकत्रित करने का कारोबार बहुत तेजी से चल रहा हे। आगे तमक और जुम्मा गांव हैं। जोशीमठ से जुम्मा 45 किमी दूर है। जुम्मा के पास धौलीगंगा को पार करने के लिये एक झूलापुल है। दूसरी पार 13 किमी की दूरी पर द्रोणागिरी गांव है। मान्यता है कि राम रावण युद्ध में मूर्छित लक्ष्मण के उपचार हेतु हनुमान संजीवनी बूटी इसी द्रोणागिरी पर्वत से ले गये थे। जुम्मा के बाद भापकुण्ड गांव है। उसके आगे कोसा गांव है जो जनप्रिय नेता कामरेड गोविन्द सिंह का गांव है। आगे मलारी गांव (समुद्रतल से 3030 मी0) है जहां पर काली देवी का मंदिर है। मलारी में इस समय सेना, आईटीबीपी, केन्द्रीय एवं प्रादेशीय गुप्तचर विभाग और स्थानीय प्रशासन की उपस्थिति बनीरहती है। चीन से लगी सीमा इस क्षेत्र को संवेदनशील बनाती है। मलारी से आगे 45 किमी पर तिब्बत-चीन सीमा है। मलारी से आगे 18 किमी पर गमशाली और उससे आगे 3 किमी पर नीती गांव है जहां पर तिब्बत में प्रवेश करने हेतु दर्रा है। गमशाली के बांई ओर 8 किमी पर कालाबाजार, 12 किमी पर बाड़ाहोती और आगे 3 किमी पर तिब्बत-चीन सीमा है। मलारी और नीती के वाशिन्दों को मार्छा या तोलछा कहते है। लेखक ने पाठकों को उक्त सीमांत क्षेेत्र की भौगोलिक एवं सामाजिक स्थिति से अवगत कराने का भरपूर प्रयास किया है जो अत्यंत सराहनीय है।13 दिसम्बर, 2021 को लेखक अपने साथियों सहित जोशीमठं से सर्वप्रथम बद्रीनाथ राजमार्ग पर स्थित विष्णुप्रयाग (समुद्रतल से 1372 मी0) पहुंचते हैं। पास ही मौजूद हाथी पर्वत की तलहटी से जब वे लोग ऊंचाई पर स्थित जोशीमठ नगर का दृषयावलोकन करते है तब उन्हे आभास होता है कि जोशीमठ मानो धंसने की प्रक्रिया में है। वास्तव में उस क्षेत्र में स्थापित वृहद जल विद्युत परियोजना के निर्माण काल में हुए अनेकों विस्फोटों के कारण उस क्षेत्र की भूमि भूस्खलन के खतरों से दो-चार हो चुकी थी जिसका क्रम अभी भी जारी है। विष्णुप्रयाग मलारी की ओर से आने वाली धौलीगंगा और माणा घाटी से आने वाली अलकनन्दा नदी का संगम स्थल है।
लेखक ने पांच प्रयाग विष्णुप्रयाग, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग भी बताये हैं। लेखक टीम सहित विष्णुप्रयाग से आगे गोविन्दघाट व पाण्डुकेश्वर पहुंचते हैं जहां पर वेे इन दोनो स्थानों के ऐतिहासिक महत्व और महात्म्य पर अन्वेषण करते है जो निःसंदेह नई पीढियों का ज्ञानवर्द्धन करेगा। 14 दिसम्बर, 2024 को लेखक केवल जोशीमठ नगर से सम्बंधित सम्बंधित अनेक नई-नई जानकारियां प्राप्त करते हैं जिनमंे नृसिंह देवता, नवदुर्गा, विष्णु और बासुदेव मंदिरों के महात्म्य कीं जानकारीं भी शामिल हैं। देर शाम लेखक अपनी टीम सहित ज्योतिर्मठ पीठ परिसर में जाते हैं। वे बताते हैं कि इसी स्थानं पर जब शंकराचार्य ने तपस्या की थी तब भगवान बद्रीनाथ जी ने उन्हे साक्षात दर्शन देकर निर्देशित किया था कि वे नारद कुण्ड से उनकी प्रतिमा निकालकर उसे बद्रीधाम में पुनर्स्थापित करें।
2. बादल जहरीखाल केउक्त शीर्षक सार्थक बनाने हेतु लेखक 13 अगस्त 2022 को अपने सात सहचरों सहित जहरीखाल पहुंचते हैं। वृतांत के प्रारंभ में वे बाबा नागार्जुन की एक कविता का संदर्भ निम्न प्रकार से देते हैः- ‘‘उमड़-घुमड़कर नभ में छाये, बादल जहरीखाल के हमको तो ये बेहद भाये, बादल जहरीखाल के क्यों करते हैं इतने नखरे, बादल जहरीखाल के क्यों लगते हैं बिखरे-बिखरे, बादल जहरीखाल के सचमुच हमें निहाल करेंगे, बादल जहरीखाल के हरे-भरे होंगे ग्रामांचल, अब पौड़ी गढ़वाल के।’’(कविता में अपनी जन्मभूमि पौड़ी का नाम देखकर मेरा मन भी गदगद हो उठा है।) लेखक लिखते हैं कि उन्होने 22 जून, 1986 को अपने मित्रों सहित बाबा नागार्जुन का 75वां जन्मदिन जहरीखाल में ही मनाया था। लेखक ने राजकीय विद्यालय जहरीखाल से सम्बंधित वह ऐतिहासिक संस्मरण दर्ज किया है जिसने ब्रिटिश काल में स्वतंत्रता आंदोलन की धूम मचा दी थी। तब उत्तराखण्ड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी वीर जयानन्द भारतीय ने 28 अगस्त,1930 को उक्त विद्यालय में तिरंगा झण्डा फहराकर देश की आजादी के लिये विद्यार्थियों को प्रेरित किया था। इस अपराध के लिये अंग्रेजों ने भारतीय जी को तीन माह के कारावास की सजा दी थी। लैन्सडाऊन का जिक्र करते हुए लेखक लिखते हैं कि ‘‘जहरीखाल की सबसे उपरी चोटी (समुद्रतल से 1800 मी0) पर लैन्सडाऊन नगर स्थित है जहां से पूरे हिमालय और गंगा नदी को एक साथ देखना सुलभ है। यह एक साफ सुथरा नगर है, हर चीज अपने स्थान पर है यहां तक कि वहां के पेड़ पौधों को भी मानो ‘ठमः सीधे खड़े रहनेे के आदेश दिये गये हों।‘ वाह! बहुत सुंदर लिखा है। कोटद्वार से 42 किमी दूर इस नगर में ‘ग़ढ़वाल राइफल’ का मुख्यालय है जिसे स्थापित करने का श्रेय सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी (1829-1896) को दिया है। इस आर्मी हेडक्वार्टर को ब्रिटिश सरकार ने 1887 में स्थापित किया जहां से गढ़वाल के नवयुवक देश की सेवा हेतु पास आउट करते हैं। इस ऐतिहासिक नगर के विषय में लेखक ने विस्तार से लिखा है। जहरीखाल से 45 किमी दूर भगवान शिव का ताड़केश्वर मंदिर है जिससे सम्बंधित ऐतिहासिक विवरण एवं महात्म्य पर भी लेखक ने कलम चलाई है।
003. सेम-मुखेम के नागराज कृष्णयह यात्रा वृतांत लेखक ने बहुत सुंदर शब्दों में एक चिंतनशीलता के साथ लिखा है। सेम-मुखेम हिन्दुओं का एक पौराणिक तीर्थ है। यह श्रीनगर गढ़वाल से 130 किमी की दूरी पर जनपद टिहरी में स्थित है। 14 अप्रेल, 2023 को लेखक अपने साथियों जगदम्बा घिल्डियाल, दीना कुकसाल, आशीष घिल्डियाल एवं सौम्या घिल्डियाल सहित उक्त तीर्थ यात्रा का श्रीगणेश करते हैं। राह में माधोसिंह भंडारी की विरासत मलेथा गांव का बंजर होता विशाल भू-क्षेत्र देखकर लेखक अत्यंत कुपित हो जाते हैं। कभी समृद्धि से समृद्ध यह भूमि अबं कर्णप्रयाग रेललाइन पर कुर्बान हो गई है। कांडीखाल पहुंचने पर मां भगवती चन्द्रबदनी (समुद्रतल से 2277 मी0) की वंदना में बांई ओर स्थित चंन्द्रकूट पर्वत की ओर लेखक केे हाथ स्वतः ही जुड़ जाते हैं। यह आस्था की बात है। पौखाल से आगे भिलंगना नदी के पार स्थित परियों के देश खैट पर्वत (समुद्र तल से 10500 फीट) की चोटी पर भी लेखक की दृष्टि पड़ती है। यह चोटी भिलंगना पार स्थित भटवाड़ा गांव से 7 किमी की अत्यंत दुर्गम खड़ी चढ़ाई पर स्थित है। लेखक टीम सहित जब टिहरी बांध के पार लम्बगांव और प्रतापनगर क्षेत्र में पहुंचते हैं, तब वे वहां की सड़कों की दुर्दशा से अत्यंत क्षुब्ध हो जाते हैं। यहां पहुंचने से पूर्व श्रद्धालुओं को या तो भिलंगना नदी पर बना पीपलडाली पुल या भागीरथी नदी पर बना डोबरा चांटी पुल कोे पार करना पड़ता है। लेखक बताते हैं कि डोबरा चांटी पुल भारत का सबसे लम्बा झूला पुल है जिसकी लम्बाई 725 मीटर है। यह पुल 14 वर्षों (वर्ष 2006-2020) में बनकर तैयार हुआ था। मुझे लगता है लेखक अपनी टीम सहित पीपलडाली पुल को पार करके ही लम्बगांव पहुंचे होंगे?लेखक बताते हैं कि पीपलडाली पुल से आगे काण्डाखाल गांव है। वहां से एक सड़क प्रतापनगर (समुद्रतल से 7800 फी0) जाती है जो एक खूबसूरत हिल स्टेशन है। इसे टिहरी नरेश प्रताप शाह ने 1877 में बसाया था। यहां से भी एक मार्ग सेम-मुखेम तीर्थ को जाता है। काण्डाखाल के बाद लम्बगांव नाम का एक बड़ा बाजार स्थित है जहां से आगे का रास्ता तीव्र उतराई एवं चढ़ाई का है जिसे लोग जान जोखिम में डालकर पार करते हैं। चूंकि वाहन चालक इन सड़को पर सुरक्षित चलने के अभ्यस्थ होते हैं, इसलिये लेखक निश्ंिचत होकर भयभीत नहीं होते हैं। वे बताते हैं कि सेम-मुखेेेेम क्षेत्र से प्रवाहित होकर जलकुर नदी लम्बगांव की तलहटी सें बहकर भल्डियाणा के पास भागीरथी नदी में विलीन हो जाती है। यह सड़क जलकुर नदी पर बने पुल को पार करने के बाद तीखी चढ़ाई वाले रास्ते से गुजरती है। दोनों ओर पहाड़ियों पर बसे गांवों और उनकी आबाद भूमि पर लहलहाते खेत जब दृष्टिगत होते हैं तो लेखक का मन अत्यंत प्रफ्फुलित हो जाता है। वे इन गांवों की वाशिंदों की कर्मठता और समृद्धिता को नमन करते है। दूर-दूर तक फैली गेहंू की सुनहरी फसल लेखक के मन कों हर लेती है। जगह-जगह आम व आड़ू के पेड़ों पर सघन बौर आई दिखती है। इन गांवों में एक मंजिले मकान ही दृष्टिगत होते है, दो मंजिले नहीं। गांव के घरों की कलात्मकता भी देखते ही बनती है। कहीं भी उजाड़ और खंडहर भवन नहीं दिखाई देते है। लेखक बताते हैं कि इस क्षेत्र के लोग सड़क व भवन निर्माण कार्य में निपुण होते हैं। आगे दीनगांव पहुंचने पर मुख्य सड़क चौरंगीखाल-उत्तरकाशी की ओर चली जाती है लेकिन वहां से बांई ओर सेम-मुखेम पहुंचने के लिए एक सम्पर्क मार्ग केवल मढ़भागी सौड़ तक ही उपलब्ध है। वहां से आगे 2 किमी की कठिन चढ़ाई है जिसे चढ़़कर श्रद्धालूगण सेेम-मुखेम मंदिर में पहुंच जाते है। वह दिन बिखोत (बैसाखी) मेले का था इसलिये भीड़-भाड़ ज्यादा थी। थकान मिटाने हेतु जब लेखक व उनकी टीम रास्ते में मौजूद बड़े पत्थरों पर बैठते हैं तो ठीक सामने मौजूद हिमालय की हिम शिखाओं की आभा देखते ही उनकी थकान फुर्र हो जाती है। पूरा रास्ता अनेक वृक्षों जैसे बांज, देवदार, थुनेर, काफल, बुरांश और जंगली फूलों के साये में गुजरता है। तेज हवाओं की शैतानी से अनेक प्रकार के पुष्प पूरे रास्ते में बिखरे पड़े हैं मानो वे सब लेखक और उनकी टीम के स्वागतार्थ पड़े हों। लेखक लिखते हैं कि ‘‘प्रकृति बेहद खूबसूरत है पर हम मानव उसे खराब करके उसी में अपना सुख ढूंडते हैं। इस इलाके में तेज हवायें बराबर चल रही है नतीजन रास्ते के दोनो ओर बिखरी प्लास्टिक की बोतलें और पैकेट उड़-उड़कर जंगल के अंदर ठिकाना बना रहेे हैं।’’आगे उन्हेे ‘भैरव शिला’ मिलती है जहां मुखेम गांव के पुजारी सुभाष भट्ट एक लोकगीत गुनगुनाते हुए लेखक की ओर मुखातिब होते हैं। ‘‘सेम- मुखेेेेेेेम क सौड़, जख रीखा चौकीदार, बाघ थानेदार, यन जगा भगवान, तुम लेन्दा अवतार।’’ अर्थात, सेम के घने जंगल में जहां भालू चौकीदार और बाघ थानेदार है, भगवान आप वहां अवतार लेते हो। समुद्र तल से 8500 फीट की ऊंचाई पर स्थित सेम-मुखेम टिहरी जनपद के प्रतापनगर तहसील की रमोली पट्टी में स्थित हैं। यह सिद्धपीठ नागराज श्रीकृष्ण के गुप्त निवास के रूप में प्रसिद्ध है। सेम का तात्पर्य नमी वाले स्थान से है जबकि मुखेम गांव सेम पहाड़ की तलहटी में बसा है। जाड़ों में मुखेम की चोटी तक 4 से 10 फुट तक बर्फ गिरती है। लेखक ने सेम-मुखेम मंदिर और उसके परिसर में मौजूद अनेक देवी देवताओं के विषय में बहुत ही सुन्दर भाषा शैली में अनेक प्रकार की ऐतिहासिक और प्राकृतिक जानकारियां पाठकों के लिये इस लेख के अंत में दी है जो स्वयं आत्मबोधक हैं।
004. परियों के देश खैट पर्वत में जनपद टिहरी गढ़वाल में खैट पर्वत अपनी विशालता एवं सुन्दरता के लिये विख्यात है। बताते है कि पहाड़ की चोटी पर आछरियों (परियों) का राज है। ये आछरिंया अनेक नामों से जानी जाती हैं। आंछरी, धाकुड़ी, भराड़ी, वनदेवी, ऐड़ी, मांतरी, परियां और अप्सरा आदि। लेखक बताते हैं कि- ‘‘ये सभी छोटी आयु में मृत्यु को प्राप्त करने वाली कुंआरी कन्याओं की अतृप्त आत्मायें होती हैं। ये अक्सर पर्वत शिखरों, निर्जन जंगलों या पानी के आस-पास वाले स्थानों में निवास करती हैं।’’ किवदन्ति है कि उक्त खैट पर्वत पर आंछरियों की नौ बहने राज करती हैं। यह भी लिखा है कि ये आछरिंया मंदोदरी और रावण की पुत्रियां हैं। येे आछरियां नाग कन्यायें भी बताई गई हैं जिनका पूजन देवी के रूप में होता है। भूत स्वरूप वाली ये खूबसूरत आछरियां पुरुषों का अपहरण भी कर लेेती हैं। इस भय से बचने के लिये स्थानीय लोग इन आछरियों के प्रति बहिन या बेटी का रिश्ता बनाये रखते हैं। किवदन्ति यह भी है कि खैट पर्वत के वीरान-घने जंगल में आंछरियों ने कभी दो सुन्दर और युवा युवकों जीतू बगड्वाल और सूरज कॉंळ (कुंवर, नाग) का अपहरण कर लिया था। उन्हे इस वादे के साथ छोड़ा गया था कि वे अपना कार्य पूरा करने के बाद वापस उनके पास लौट आयेंगे।यह सब जानते हुए भी जब 7 जून 2023 को लेखक ने उक्त खैट पर्वत पर जाने का निर्णय लिया तो वह एक आत्मघाती निर्णय जैसा था जिसपर उनकी धर्मपत्नी जी ने यह कहकर ऐतराज उठाया कि-‘‘खैट पर्वत क्यों जा रहे हो? तुम्हे पता है कि वहां परियां रहती ह,ैं जो अपहरण कर लेती हैं?’’ इसके प्रत्यृत्तर में लेखक पत्नी को समझाते हैं कि-‘‘परियां तो केवल सुन्दर लोगो का अपहरण करती है…और तुम्हारे कथन अनुसार मैं किसी तरह से भी सुन्दर नहीं हू…इसलिये वहां जाने में…मुझे कोई डर नहीं है।’’ धर्मपत्नी जी ने तत्काल दूसरा व्यंग मारा-‘‘घर का काम छोड़कर…तुम लड़कों के साथ पहाड़ दर पहाड़…भटकने के लिये जाते हो…कम से कम अपनी उम्र तो देखो?’’(यह पढ़कर मैं कुछ देर तक हंसता रहा)।लेखक लिखते हैं कि- ‘‘श्रीमती जी की चिन्ता, उलाहना और नाराजगी में भी उन्होने उनकी मूक सहमति प्राप्त कर ली थी और अपने साथियों विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा तथा राकेश जुगराण सहित खैट पर्वत की यात्रा पर गमन कर लिया था।’’ सफर के दौरान लेखक अपने साथियों कीे अनेक ऐतिहासिक और भौगोलिक जिज्ञासाओं को शांत भी करते रहे। इस सफर में वे मलेथा, कांडीखाल, पौखाल, जाखधार होते हुए पीपलडाली के पास पहुंचते हैं जहां पर भिलंगना नदी पार करने के लिये पुल मौजूद है। टीम के सदस्यों को चाय पिलातेे हुए दुकानदार उनसे कहते हैं कि- ‘‘नदी पार करने पर कुछ दूरी पर मार्ग दो भागों में विभाजित है। बांई ओर का मार्ग लम्बगांव होते हुए उत्तरकाशी की ओर जाता है जबकि दांई ओर का मार्ग रजाखेत, भटवाड़ा व कोलगांवं की ओर जाता है। यहां से कोलगांव 15 किमी दूर है। यहां शाम को जल्दी अंधेरा छाने लगता है।’’ टीम के सदस्य रास्ते में बाघ देखकर अत्यंत भयभीत हो जाते है। वे रात अंधेरे में कोलगांव पहुंचकर विद्यादत्त पेटवाल के होम स्टे में शरण लेते हैं।
8 जून 2023 की सुबह वे लोग भटवाड़़ा गांव पहुंचते हैं जहां से 35 किमी की दूरी पर घनसाली स्थित है। भटवाड़ा से 1 किमी आगे टैक्सी छोड़कर वे खैट पर्वत की ओर चढ़ाई वाले मार्ग पर पैदल गमन करते है। वहां रास्ते पर कहीं भी पानी के स्रोत नहीं हैं, इसलिये सब लोग अपने साथ पानी भरी बोतले रख लेते हैं। यह ताज्जुब की बात है कि बांज-बुरांश से लदे उस पहाड़ पर एक भी जलस्रोत नहीं है। भटवाड़ा गांव की उपरी धार से उन्हे खैट पर्वत के दर्शन होते हैं जिसपर लेखक लिखते हैं-‘‘इधर-उधर बिखरे भीमकाय पत्थरों के बीच चढ़ता तीखा रास्ता मनुष्यकृत कम और प्राकृतिक अधिक लगता है। ये पत्थर सामान्य पत्थरों से ज्यादा आकर्षक और चमकीले हैं।‘‘ एक साथी बोलते हैं- ‘‘इसी पगडंडीं से आछरियां भिलंगना नदी से पीने के लिये पानी लाती होेंगी।’’ यह सुनकर सभी भयभीत हो जाते हैं कि कहीं आछरियां साक्षात उनके सामने न आ जांय। रास्ते में उन्हे महिलाओं का एक झुण्ड मिलता है जो घास काटकर उसकी पूलियां रास्ते के इधर-उधर रखती चली जाती हैं। वे पूछने पर बताती हैं- ‘‘भाई जी, ‘ये हमारा रोज का घास-लकड़ी लाने का रास्ता है। आज तो हम देवी भागवत कथा सुनने खैट पर्वत पर जा रही है, वापसी में इस घास के गठ्ठर बनाकर घर ले जायेंगे।’’रास्ता विकट होता जा रहा है। वे महिलायें भी लेखक की टीम के साथ बातचीत जारी रखते हुए रास्ता काटती हैं। रास्ते में उन्हे घने पेड़ों की टहनियों से बने झूले दिखाई देते हैं। लेखक का मन उन झूलों में झूलने के लिये लालायित होता है तो वे एक झूले में झूलने लगते हैं। उन्हे झूलते देख उनका एक साथी व्यंग मारता है- ’’बंदर अगर बूढ़ा भी हो जाय तो वह उछल-कूद करना नहीं छोड़ता हे।’’ तभी एक बहिन उन्हे सचेत करती है-‘‘यहां पर ज्यादा नहीं रुकना है, यह बाग-भालू और वण देवियों (आछरियों) कीे सबसे प्रिय जगह है।’’ आगे धार पर कैटभ राक्षस का मंदिर है जो करीने से सजे पत्थरों ये बना है। वहा पर पूजा अर्चना के बाद लेखक व उनके साथी साथ लाये भोजन को ग्रहण करते हैं। उस स्थान से एक रास्ता पीढ़ी के भराड़ी नामक डांडा (पहाड़) की ओर जाता है। वहां पर भी देवी का मंदिर है जो उस स्थान से 7 किमी की दूरी पर है। सीधी चढ़ाई के बाद एक रास्ता दूसरी धार की ओर जाता है जो बहुत संकरा है। उस वक्राकार रास्ते के दांयी ओर सीधे नीच ऐसी खाई है कि यदि उस खाई में कोई गिर गया तो उसका राम नाम सत्य होना तय है। लेखक और उसकी टीम बांई ओर की खड़ी पहाड़ी का सहारा लेकर उस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं ताकि वे भयभीत होने से बच सकें। जबकि उस खतरनाक रास्ते पर महिलाये निडर होकर स्वाभाविक चाल से चल रहीं थीं। ऐसी भयंकर स्थिति में लेखक और उनके साथी खैटखालं पहुंच जाते हैं जहां पर मंदिर की घंटियों की आवाज और देवी भागवत के पूजन गाथा से खैट का मंदिर (समुद्रतल से 10,500 फी0) गुंजायमान रहता है। यहां पर देवी पूजन और भण्डारे का आयोजन प्रति वर्ष लेखक के मित्र प्रेमदत्त नौटियाल ‘कामिड’ की देखरेख में सम्पन्न होता है। खैटखाल में मां भगवती का मंदिर सबसे उपर है। उसके नीचे एक आंगन और धर्मशाला है। लेखक ने अनुभव कियां कि मंदिर में चल रहे प्रवचन उस जगह को दिव्यता और भव्यता प्रदान कर रहे हैं। वहां पता चलता है कि एक और रास्ता भी जागधार से घनसाली, सुनहरी गाड़ (मुलानी), थात गांव तक सड़क मार्ग से और उसके बाद 3 किमी पैदल चलकर खैट पर्वत पहुंचता है।
प्रेम दत्त नौटियाल ‘कामिड’ के हवाले से जानकारी मिलती है कि- ‘‘उक्त स्थान पर मां भगवती ने मधु एवं कैटभ नामक राक्षसों का बध किया था। मथु राक्षस का शव चम्पावत पहुंच गया जबकि कैटभ का शव यहीं पर रह गया। इसी कैटभ के नाम से उक्त पर्वत का नाम खैट पर्वत प्रचलित हुआ।’’ उन्होने यह भी कहा कि- ‘‘उक्त पर्वत क्षेत्र वन देवियों (आछरियों) के लिये जाना जाता है और ये आछरियां उनके पशुधन तथा भूमि की रक्षा करती हैं। इस पूरे आयोजन में 12 बजे से 8 बजे रात तक भण्डारा चलता है। सारी व्यवस्थायें दानदाताओं की ओर से होती हैं। स्थानीय लोग सड़क से यहां तक सारा सामान निःस्वार्थ एवं भक्ति भाव से पहुंचाते है।’’ ‘कामिड’ यह भी तय बताते हैं कि- ‘‘पानी की पूर्ति के लिये यहा पर दो हारवेस्टिंग टैंक बनाये गये है जिनमें वर्ष भर वर्षा का पानी जमा होता रहता है।’’ लेखक के साथी चाहते थे कि वे कुछ समय और खैट पर्वत की भव्यता और दिव्यता को आत्मसात करलें लेकिन मौसम की अनिश्चिंतता के कारण वे सब यात्रा समाप्त करके उसी रास्ते से वापस श्रीनगर लौट आते है।
5. शिव-पार्वती का विवाह स्थल त्रियुगीनारायणजनपद रुद्रप्रयाग के अंतर्गत् स्थित त्रियुगीनारायण (समुद्र तल से 6500 फी0) या त्रिजुगीनारायण एक ऐसा पौराणिक देवस्थल है जहां पर भगवान शिव ने देवी पार्वती के साथ विवाह कर उनका पत्नी के रूप में वरण किया था। उक्त विवाह की साक्षी वह अमर ज्योति है जो तबसे हर पल स्वतः ही उस स्थान पर जलती रहती है। यह दैवीय स्थल वर्तमान में एक मैरिज डेस्टीनेशन (विवाह स्थल) के रूप में प्रचलित है। देश-दुनियां के दूल्हा-दुल्हन यहां पहुंचकर विवाह बंधन में बंध जाते है।
23 नवम्बर 2023 को यहां पर रुद्रप्रयाग जनपद के जवाड़ी गांव की कन्या सोनाली के विवाह में सम्मिलित होने के लिये लेखक, दीना कुकसाल जी, अमन कुकसाल, हिमाली कुकसाल और चालक राकेश रमोला सहितं रुद्रप्रयाग से त्रियुगीनारायण की ओर गतिमान है। यह स्थान भगवान केदारनाथ जी के क्षेत्र में मौजूद है। चूंकि तब यात्रा सीजन नहीं था इसलिये लेखक व उनकी टीम खुले मार्ग की ताजी आबोहवा को ग्रहण करते हुए प्रफ्फुलित हो गमन कर रहे थे। त्रियुगीनारायण पहुंचने के लिये वे लोग रुद्रप्रयाग होते हुए भटवाड़ीसैण, तिलवाड़ा, सिल्ली, अगस्तमुनी, चन्द्रापुरी, बांसवाड़ा, भीरी, काकड़ागाड, कुण्ड, गुप्तकाशी, नारायणकोटी, फाटा, सीतापुर, रामपुर और सोनप्रयाग तक का सफर कर चुके थे। सोनप्रयाग से दाहिनी ओर का मार्ग गौरीकुण्ड की ओर चला जाता है वहां से केदारनाथ जी की यात्रा के लिये पैदल मार्ग पर चलना पड़ता है। सोनप्रयाग से बाईं ओर का चढ़ाई वाला सड़क मार्ग से श्रद्धालु त्रियुगीनारायण पहुंच जाते है। यह स्थान सोनप्रयाग से 13 किमी की दूरी पर स्थित है। यहीं पर सोनाली का विवाह समारोह आयोजित है। त्रियुगीनारायण की ओर बढ़ते हुए लेखक देखते हैं कि त्रियुगीनारायण से 2 किमी पहले सड़क के बांईं ओर वाहनों की लम्बी कतार खड़ी है। वे समझ जाते है कि आज अधिक संख्या में विवाह समारोह पंजीकृत हैं। वे बताते हैं कि इन वाहनों में सबसे ज्यादा उ0प्र, हरियाणा, पंजाब और हिमांचल के वाहन मौजूद हैं। वे एक स्थान पर रुककर त्रियुगीनारायण से लौटते वाहनों में दूल्हा-दुल्हनों को निहारने लगते हैं। संयोग से वे एक वाहन में देखते हैं कि विवाहोपरांत सोनाली और उसका दूल्हा लौट रहे हैं। वे दूर से उन्हे पहचान लेते हैं। तभी लेखक के मोबाइल पर मैसेज आता है कि-‘‘सोनाली की शादी बढ़िया तरीके से सम्पन्न हो चुकी है, आप सब मंदिर दर्शन के बाद तुरंत शादी की दावत में शामिल होने जवाड़ी आ जाओ। हम इंतजार करेंगे।’’ लेखक ‘‘अच्छा ठीक है’’ ही कह पाते हैं। वे जब मंदिर परिसर में पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वहां पर मुख्य द्वार से ही पूजा-पाठ, विवाह सामग्री और खाने-पीने की अनेको दुकानें सज-धज रखी हैं और अनेकों वेडिंग समूहों में फोटोग्राफी का कार्य चरम पर चल रहा है। तब मंदिर परिसर में बनी विभिन्न वेदियों पर विवाह संस्कार सम्पन्न भी हो रहे थें। लेखक त्रियुगीनारायण के सम्बंध में पूछताछ हेतु जब मंदिर के पुजारी से सम्पर्क साधते हैं तो पुजारी तल्लीनता के साथ उन्हे बताते हैं कि- ‘‘गढ़वाल हिमालय में स्थित तीर्थस्थलों में त्रिजुगीनारायण विशिष्ट पहचान रखते हैं जिसमें सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग की दिव्यता और वैभव विराजमान है। त्रियुगी का शास्त्रीय अर्थ गुप्त रूप से निवास करने से है।
वैष्णव मतानुसार त्रिजुगीनारायण में भगवान विष्णु अग्नि रूप में गुप्त तरीके से निवास करते हैं। विष्णु इस अंचल के ईष्ट देव माने जाते हैं।…इस स्थान पर जल रही अखण्ड धूनी ही यहां का परम महात्म्य है। मंदिर के अंदर विष्णु, भूदेवी, लक्ष्मी और सरस्वती के पीछे बद्रीश पंचायत की मूर्तिया हैं। बाहर परिसर में शिव-पारवती, हनुमान, नागराज व अन्नपूर्णा देवी के मंदिर है।…मान्यता है कि त्रिजुगीनारायण में शिव और पारवती का विवाह हुआ था। जिस पत्थर पर शिव पार्वती के विवाह की रस्म पूरी हुई थी वह पत्थर यहां विराजमान है। इसे घर्मशिला कहा जाता है। महादेव किरात वंश के हैं इसलिये विवाह की सभी व्यवस्थायें किरात समुदाय ने ही की थीं। आदि…आदि।’’ लेखक ने अनेक ऐतिहासिक जानकारियां बटोरकर पाठकों के ज्ञानार्थ उक्त पुस्तक में उकेर दी हैं। ऐसा काम एक लग्नशील और उद्देश्य के प्रति कटिबद्ध व्यक्तित्व ही कर सकता है। लेखक ने त्रियुगीनारायण के इर्द-गिर्द मौजूद भौगोलिक क्षेत्र का भी जायजा लिया। वे बताते हैं कि त्रियुगीनारायण गांव 12 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तारित है। येे 450 मवासों के पीछे 3000 आबादी वाली ग्राम पंचायत है। यहां की उपरी पहाड़ी में 2 किमी की दूरी पर गौरी गुफा, 5 किमी की दूरी पर कृष्ण सरोवर और 18 किमी की दूरी पर पंवालीकांठा का ट्रैक है। बांई ओर केदारनाथ के ऊंचे शिखर हैं जहां पर चौराबाड़ी ताल, बासुकीताल, जग्गीताल और पंय्यांताल स्थित हैं। लेखक शायद 23 नवम्बर 2023 को सपरिवार शादी समारोह में शामिल नही हुए। वे त्रियुगीनारायण में ही रुके रहे ताकि उन्हेे उक्त पवित्र धरती से सम्बंधित कुछ और जानकारियां हासिल हो सके। लेखक को जहां शादी समारोहों के कारण अराजक होती पर्यावर्णीय समस्या से दो-चार होना पड़ा वहीं स्थानीय पैय्यां (पद्म) के वृक्षों पर भरपूर खिले फूलों की छटा देखकर उनका मन इतना उतावला भी हो चुका था कि वे एक गढ़वाली थड्या गीत को स्वयं गुनगुनाने लगे थे- ‘‘सेरा कि मिंडोळ्यूं, नै डाळि पैंय्यां जामी, देवतों की थाति मां, नै डाळि पैंय्यां जामी। यह समीक्षा लिखते हुए मैं भी स्वयं पर काबू नहीं पा सकां और उक्त गीत को गुनगुनाने लगा। बचपन में मैंने देखा था कि हमारे गांव की मां बहिने एक विशेष नृत्य के साथ इस गीत सहित अन्य थड्या गीतों कों भी हर वर्ष अमुक अवसर पर गाया करती थीं। कुल मिलाकर लेखक ने त्रिजुगीनारायण क्षेत्र से सम्बंधित सभी जानकारियों का संकलन करके उन्हे पाठकों के समक्ष बहुत ही सुंदर एवं प्रभावशाली भाषा शैली में प्रस्तुत किया है। लेखक को हार्दिक साधुवाद।
6. दीपक का खैनोली गांव लेखक ने उक्त गांव की यात्रा अपने परम मित्र विभोर बहुगुणा एवं बालक दीपक सहित 17 जनवरी 2024 को की थी। तब वाहन को विभोर चला रहे थे और दीपक पीछे बैठा था। खैनोली गांव चमोली जनपद की नारायणबगड़ तहसील की बधाण पट्टी में स्थित है। सफर में लेखक अपने दोनों साथियों से कहते हैं कि यदि वहां बर्फ गिर रही होगी तो रात्रि विश्राम खैनोली में ही करेंगे आज ही लौट आयेंगे। इस यात्रा उद्देश्य में मानवीय संवेदनाओं, नाते-रिश्तों औरं परदर्द को समझने की एक मार्मिक सत्य कथा निहित है जिसमें विभोर की भूमिका अत्योतम है। विभोर आज भीें श्रीनगर गढ़वाल क्षेत्र का एक संवेदनशील एवं सहृदयी सामाजिक कार्यकर्ता है। गरीब लोगों के प्रति वह जज्बाती दया भाव रखते है। वही इस सत्य कथानक के मुख्य पात्र हैं। उनकी दिनचर्या ज्यादातर श्रीनगर-श्रीकोट के अस्पतालों में मरीजो की देखभाल में गुजरती है। 6 वर्ष पूर्वे विभोर लेखक को अपने गांव बलोड़ी ले गये थे जहां पर दीपक तब पंचतत्व आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। इस संस्थान में बच्चों को कक्षा 6 से 10 तक नियमित रूप से शिक्षित किया जाता है। उन दिनों उस संस्थान में दीपक की तरह 16 छात्र भी आश्रम में रहते थे। तब दीपक बलोड़ी की प्राथमिक पाठशाल के कक्षा 3 में पढ़़ता था। इस सत्य कथानक का बीज मई 2016 की एक शाम तब प्रस्फुटित हुआ जब विभोर ने अपने मित्र गिरीश नौटियाल सहित बेस अस्पताल श्रीनगर (गढ़वाल) की गैलरी के कोने में बैठी एक गरीब महिला को देखा। वह अपने दो बच्चों को सीने से चिपकाये बैठी थी और बात करने की स्थिति में नहीं थी क्योंकि वह सुबक-सुबक रो रही थी। विभोर ने जब चाय-बिस्कुट लाकर उसे खिलाये तब वह सामान्य स्थिति में आई। अस्पताल के स्टाफ से पता चला कि वह महिला नारायणबगड़ क्षेत्र से बीमार अवस्था में आई है, उसे हड्डियों की टीबी है। विभोर और उनके मित्र ने जब अस्पताल में हो-हल्ला मचाया तब ही अस्पताल प्रशासन हरकत में आया। उस महिला को अस्पताल में भरती किया गया और उनके लिये जरूरी व्यवस्थायें की गईं। विभोर ने अस्पताल की कैण्टीन से उनकी भोजन व्यवस्था सेट करवाई। उस 35 वर्षीय महिला का नाम सुरेशी देवी रावत था। उसने दोनों बच्चों के नाम देवेन्द्र (12वर्ष) और दीपक (8वर्ष) बताया। उसके पति मोहन सिंह 2 वर्ष पूर्व टीवी के शिकार हो चुके थे। उसने गांव का नाम खैनोली बताया। विभोर और उसके मित्रों के आत्मीय सहयोग से सुरेशी देवी का इलाज ठीक से होने लगा। विभोर व उसके मित्रों ने उसके इलाज के लिये 57 हजार रुपये की धनराषि भी जुटाकर उसका बैंक अकाउंट खुलवाकर यह रकम वहां जमा करवाई। सुरेशी देवी के स्वास्थ्य में जब सुधार हुआ तब विभोर उन्हे अपने गांव बलोड़ी ले गया और वहां पर उनके रहने व बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था की। लेकिन जनवरी 2017 में सुरेशी देवी पुनः बीमार होकर 18 जनवरी 2017 को अस्पताल में ही स्वर्ग सिधार गईं। इससे पूर्व वह विभोर को अपना धर्म भाई बनाकर उसने दोनों बच्चों के पालन-पोषण का वादा ले लिया था। विभोर के शभचिंतकों द्वारा सुरेशी देवी का दाह-संस्कार कराया। उसके दोनों बच्चों को विभोर ने अपने ही घर पर रखा और उनकी शिक्षा की पुनर्व्यवस्था भी की।
धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई। लेकिन 4 फरवरी 2018 को अचानक देवेन्द्र भी चल बसा जिस कारण दीपक अनाथ जैसा हो गया। कई दिनों तक वह मामा विभोर से ही लिपटा रहा। धीरे-धीरे सामान्य होने पर दीपक पंचतत्व आश्रम में ध्यान लगाकर पढ़ने लगा। विभोर हर सप्ताह श्रीनगर से आकर उसका मनोबल बढ़ाता रहा। अब दीपक कक्षा 8 का छात्र है जो अपनी स्कूल में क्रिकेट का सबसे बेहतरीन खिलाड़ी भी है। लेखक लिखते हैं कि वे तीनों लोग नारायणबगड़ होते हुए, थराली से आगे खैनोली पहुंचने के लिये दांई ओर के एक सम्पर्क मार्ग पर आगे बढ़़़ जातेे हैं। वहां से खैनोली 9 किमी दूर है। वे जब घटगाड़, हंसकोटी, बसील, गड़कोट, कनसीला गांव पीछे छोड़कर स्यूंटा गांव पहुंचते है तब उन्हे खैनोली गांव दृष्टिगत होता जो पार्श्व में खड़ी सबसे ऊंची पहाड़ी के साये में दूर-दूर तक फैला नजर आता है। खैनोली का बोर्ड देखकर विभोर वहां पर गाड़ी रोक देते है। पास की दुकान पर दुकानदार अपना काम छोड़कर तेजी से उनके पास पहुंच जाता है। धीरे-धीरे वहां लोगों का जमघट लग जाता है। लेखक ने खैनोली गांव के वाशिंदों द्वारा उन्हे दिया गया स्वागतम्, गांव का रहन सहन, वहां की आबोहवा, खेतीबाड़ी, माल्टा से भरे पेड़ों की रगंत, सामाजिक ताना बाना व मेल मिलाप, ग्रामीणों का दीपक के प्रति प्रदर्शित निश्छल प्रेम, अपनापन, वहां के बच्चों के साथ दीपक का क्रिकेट खेलना, दीपक के स्व0 माता-पिता के घर की स्थिति और दीपक की विदाई के समय का दृष्य जैसे अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे हालातों जैसे विषयों पर बहुत सुन्दर भाषा शैली और चिंतनशीलता के साथ इसके यात्रा वृतांत पर कलम चलाई है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठकों केे हृदय में मानवीयता, भाईचारे और उपकार से ओत-प्रोत एक नवज्योति जलती हुई जरूर दिखाई देगी।
डाॅ. अरुण कुकसाल की नवीन यात्रा-पुस्तक ‘परियों के देश खैट पर्वत में’ किताब का मूल्य ₹ 150 है। यह यात्रा-पुस्तक अमेजाॅन लिंक- https://amzn.in/d/aO2LoeF, समय-साक्ष्य प्रकाशन, 15 फालतू लाइन, निकट- दर्शन लाल चौक, देहरादून, मोबाइल नंबर- 7579243444, पीएमएफएमई आर्गेनिक स्टोर, निकट- जीएमओयू, बस स्टेशन (मोबाइल नंबर-94565 57826)एवं तोषित पुस्तक निकेतन, अपर बाजार ( मोबाइल नंबर-94126 80810), श्रीनगर (गढ़वाल) से प्राप्त की जा सकती है।बिहारी लाल दनोसीलेन नं. 1 ए दिल्ली फार्म,हर्रावाला, देहरादून।फो. 7302143862